बहकते कदम
बहकते कदम, छूटता संस्कार
हर तरफ आलोकित होतामनुष्य का कलुषित व्यवहार।
जनक-जननि नहीं प्यारे
प्यारी है प्रेयसी
भाई-भाई का बन गया विद्वेषी।
संस्कृति का होता ह्रास
समाज का होता परिहास
चारो तरफ छाया तीमिर
नहीं कहीं दिवा की आस।
चहुंदिश परलक्ष्ति ज्वाल-द्वेष
जन जन में पूरित घृणा क्लेश
नैतिक मूल्यो का हो रहा पतन
हिंसा का होता है अभिषेक।
मानवत जड़ता में परिवर्तित
प्रेम भाव में स्वार्थ मिश्रित
दुषित हो गयी संपूर्ण श्रृष्टि
लोभ की हो रही तेज वृष्टि।
इसमे भीग रहा संपूर्ण संसार
चारो तरफ फैला भष्ट्राचार भष्ट्राचार।
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