Saturday, January 8, 2011

सर्दी की रात

दांतो की कटकटाहट
कानों से गुजरी
विस्मृत आंखे
एक शख्स पर ठहरी
पांवों को सीने में समेटे
कफन की कथरी
बदन में लपेटे
उसके कानों पर था
हाथों का पहरा
हवाओं के झोंकों ने
उसे बना दिया था बहरा
मौत को दी थी दावत
जिंदगी से की थी बगावत
तापमान की शुन्यता से नहीं
लोगों की शुन्यता से जमा था वो
टूट रहा था उसका संबल
मौत ही थी उसका कंबल
जिसे ओढ़ कर वो आराम पाएगा
बेदर्द जमाने और सर्द हवाओं से
मुक्ति पाएगा
लोगों के रगों में पानी बह रहा है
लोग पल-पल मरते उस
शख्स को देख रहे हैं
उसके अंतिम आह में थी वेदना
भगवान के प्रति संवेदना
कुछ ना मांगा उम्र भर
बस अब एक ही है आस
भगवान बुला ले मुझे अपने पास

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