Saturday, January 8, 2011

आंसू अब बनावटी लगते हैं


आंसू अब बनावटी लगते हैं
आखों पर सजावटी लगते हैं
आसूओं में अब धार नहीं
वो पहले की रफ्तार नहीं
जब एक बूंद टपकती है लोलों पर
तो खूबसूरत नज़र आती है
उसके दर्द में भी जरुरत नज़र आती है
आसूओं का मौसम होता था
लेकिन वो कित्रिम हो गए हैं
जरुरत के हिसाब से बह रहे हैं
माफ़ किजिएगा
बदल गया है मेरा पैमाना
आसूओं की आड़ में
सिर्फ झूठ को छिपाना
जी भर के झूठ बोलिए
पकड़े जाने पर रो लिजिए
रोने पर आंसू निकल आएंगे
आप पकड़े जाने से बच जाएंगे
आप लोगों से यही है गुजारिश
आसूओं को मौसम के हिसाब से
पलकों को भिगोने दिजिए
इतनी ज्यादा भी कित्रिम वर्षा
ना किजिए
जीवन में भी ग्लोबल वार्मिग
आ जाएगा
जिस दिन आसूओं की जरुरत होगी
वो पलकों पर नहीं आएगा

2 comments:

  1. Dear Prabhakar,

    Well expressed, well said,keep up the good works

    regards
    sanjay singh

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  2. बहुत अच्छा है ...मुझे पता है तुम बहुत अच्छा सोचते हो लेकिन इतना ये नहीं सोचा था । गुड

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